वास्तु शास्त्र में दिशा निर्धारण
वास्तु का निर्माण करने से पूर्व दिशाओं का निर्धारण करना आवश्यक है | दिशाओ का विचार किए बिना निर्मित किए गए वास्तु निर्माण अनपेक्षित परेशानियों का जन्म देते है |
मंदिर, मकान, घर्मशाला, दुकान, कारखाना, औषधालय, अनाथालय, छात्रालय, वाचनालय, पठशाला, महाविद्यालय, आश्रम, कार्यालय, आदि कोई भी निर्माण कार्य करने के पूर्व दिशाओं का निर्धारण अवश्य करलेना चाहिए | तथा दिशाओं का अनुकूल प्रतिकूल प्रतिकूल फलो का विचार करके ही निर्माण कार्य करना चाहिए |
दिशाओं की अनुकूलता देखकर बनाहुआ भवन स्वामी को धन, धान्य, आयु, बल, आरोग्य, लाभकारक होती है | और वास्तु की प्रतिकूलता से बना हुआ भवन हानि, पारिवारिक एवं शारीरिक हानि, परेशानिया, कलह, विवाद, विसंवाद को आमंत्रण देती है |
प्रकृति में दश दिशा मानी गई है |
चार मुख्य दिशा – पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण
चार विदिशाएं - ईशान, अग्नि, नैॠ॒॒त्य, वायव्य
तथा ऊपर आकाश एवं निचे पाताल
इसके आलावा
पूर्व ईशान , उत्तर ईशान
पूर्व अग्नि , दक्षिण अग्नि
दक्षिण नैॠ॒॒त्य , पश्चिम नैॠ॒॒त्य
पश्चिम वायव्य , उत्तर वायव्य
दिशा निर्धारण की आधुनिक विधि
Morden Method Of Determination Of Directions
वर्त्तमान युग में मेग्नेटिक कम्पास की मदद से निर्धारण किया जाता है |